Home देश- विदेश आपदा प्रबंधन की एक मिसाल गोना ताल- सजंय चौहान

आपदा प्रबंधन की एक मिसाल गोना ताल- सजंय चौहान

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एक था गौणा ताल!– 51 साल पहले आयी विनाशकारी आपदा नें इतिहास ही नहीं बल्कि भूगोल भी बदला था, आज केवल तारीखों में है जिंदा..
ग्राउंड जीरो से संजय चौहान
सीमांत जनपद चमोली में बिरही से लगभग 18 किमी दूर एक सुन्दर और प्यारी से घाटी है निजमुला घाटी। आज से 51 बरस पहले कभी इस घाटी की अलग ही रौनक थी लेकिन आज वहां वीरानी के सिवा कुछ नहीं। क्योंकि आज से ठीक 51 बरस पहले वहां पर एक बेहद ही सुन्दर और नयनाभिराम गौणा ताल मौजूद था। जहाँ पर लोग ताल की सुन्दरता का लुत्फ़ उठाने जाया करते थे। यह पांच मील लंबा, एक मील चौड़ा और तीन सौ फुट गहरा एक विशाल ताल था। ताल के ऊपरी हिस्से में त्रिशूल पर्वत की शाखा कुंवारी पर्वत से निकलने वाली बिरही समेत अन्य छोटी-बड़ी चार नदियों के पानी से ताल में पानी भरता रहता था। इस ताल के कोने एक पर गौणा गांव और दूसरे कोने पर दुर्मी गांव था। इसलिए इसे गौणा ताल या दुर्मी ताल कहा जाता था। बिरही से ही इस घाटी को सड़क कटती है इसलिए बाहर से आने वाले इसे बिरही ताल कहते थे। इसमें करीब 15 करोड़ घन मीटर पानी था। लेकिन 20 जुलाई 1970 को नंदा घुंघटी पर्वत पर भारी बारिश और बादल फटने से एक साथ ढाक नाला तपोवन जोशीमठ, पातळ गंगा, और बिरही नदी में भयंकर बाढ़ आ गई थी जिस कारण से बिरही ताल टूट भी गया था। उस रात भयानक आवाजें आती रहीं. फिर एक जोरदार गड़गड़ाहट हुई और फिर सबकुछ ठंडा पड़ गया। ताल के किनारे की ऊंची चोटियों पर बसने वाले इन लोगों ने सुबह के उजाले में पाया कि गौना ताल फूट चुका है। बड़ी-बड़ी चट्टानों और हजारों पेड़ों का मलबा और रेत ही रेत पड़ी थी चारों ओर। गौणा ताल ने उस दिन बहुत बड़े प्रलय को अपनी गहराई में समाकर उसका छोटा-सा अंश ही बाहर फेंका था। उसने अपने आप को मिटा कर उत्तराखंड, तराई और दूर मैदान तक एक बड़े हिस्से को बचा लिया था। वह सारा मलबा उसके विशाल विस्तार और गहराई में न समाया होता तो सन 70 की बाढ़ की तबाही के आंकड़े कुछ और ही होते। इसी दिन पीपलकोटी के निकट बेलाकुची कस्बा भी हमेशा हमेशा के लिए नेस्तनाबूत हो गया था। ताल टूटने के बाद भारी मात्रा में पानी बिरही की संकरी घाटी से होते हुए चमोली, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग, श्रीनगर, ऋषिकेश और हरिद्वार की ओर बढा जिसने भारी व्यापक तबाही मचाई थी। दस्तावेजों के मुताबिक उस भारी जल प्रवाह से भले ही अलकनंदा घाटी में खेती और संपत्ति को भारी नुकसान हुआ था लेकिन मौत सिर्फ एक हुई थी। वह भी उस साधु की जो लाख समझाने के बावजूद जलसमाधि लेने पर अड़ा हुआ था।

आपदा प्रबंधन की मिशाल था गौणा ताल!

बिरही नदी और आपदाओं का लम्बा इतिहास रहा है। सन 1700 से लेकर सन 1970 के बीच इस घाटी मे कई बार भारी भूस्खलन और आपदाओं नें घाटी सहित निचले स्थानों में बसे कस्बों को भारी नुकसान पहुंचाया। श्रीनगर शहर तो बिरही ताल से कई बार नेस्तानाबूत हुआ। चमोली ज़िले में अलकनंदा नदी की एक सहायक नदी है विरही गंगा। आज से सवा सौ साल पहले जुलाई 1893 में इस नदी में क़रीब की एक पहाड़ी टूटकर जा गिरी। बरसात के दिन थे और इस भूस्खलन ने तेज़ रफ़्तार से बहती नदी का रास्ता रोक दिया। ये घटना जैसे ही क़रीब के ग्रामीणों ने अंग्रेज़ अधिकारियों को दी तो वो हरकत में आ गए। क़रीब पौने दो सौ किलोमीटर दूर हरिद्वार के रायवाला में सुपरिंटेंडिंग इंजीनियर लेफ्टिनेंट कर्नल पुलफोर्ड ने फौरन अपने इंजीनियर को मौके पर भेजा। स्थिति का जायज़ा लेने के बाद ये अनुमान लगाया गया कि इस झील को भरने में एक साल लग सकता है, लेकिन उसके बाद अगर झील फटी तो भयानक नतीजे हो सकते हैं। इस झील को गौणा ताल नाम दिया गया। ले. कर्नल पुलफोर्ड ने अपने स्टाफ़ के तकनीशियनों को झील पर ही तैनात कर दिया। इस झील से रायवाला तक पौने दो सौ किलोमीटर लंबी टेलीग्राफ़ की लाइन बिछाई गई। इस टेलीग्राफ़ लाइन के तारों को पहाड़ों के जंगलों में पेड़ों पर ठोक-ठोक कर लगाया गया। लगातार झील की मॉनीटरिंग चलती रही। इस बीच झील तीन किलोमीटर लंबी हो गई। अंग्रेज़ों ने पास ही एक गेस्ट हाउस बना दिया, जहां से पूरी झील का नज़ारा दिखता था। झील में बोटिंग और फिशिंग भी शुरू हो गई। ये झील भूवैज्ञानिकों के लिए भी कुतूहल का विषय रही। उस दौर के सबसे बड़े अंग्रेज़ भूवैज्ञानिक हालात का जायज़ा लेने पहुंचे। साल भर बाद 15 अगस्त, 1894 के आसपास इस झील के फटने का अनुमान लगाया गया। समय रहते ही अंग्रेज़ों ने निचले इलाके से लोगों को हटाना शुरू कर दिया। लोगों को सुरक्षित जगहों पर भेज दिया गया। रास्ते में अलकनंदा नदी पर बने कुछ पुल हटा दिए गए। भारी बरसात के बीच 27 अगस्त 1894 को ये बड़ी झील फूटी और वो चमोली, रुद्रप्रयाग, श्रीनगर में तबाही मचाती हुई ऋषिकेश, हरिद्वार की ओर बढ़ी। रुड़की तक अपर गंगा कैनाल सिल्ट से भर गई। इस तबाही को कोई नहीं रोक सकता था, लेकिन ख़ास बात ये रही कि इस तबाही में एक भी इंसान की मौत नहीं हुई। ठीक 85 साल बाद 1970 में यही झील जब दोबारा फूटी तो जनधन की भारी तबाही हुई। तो साफ़ हो जाता है कि सवा सौ साल पहले 1894 में अंग्रेज़ों के दौर में हुई वो कवायद अपने आप में आपदा प्रबंधन की कितनी बड़ी औऱ ऐतिहासिक मिसाल है। देश-विदेश के भूवैज्ञानिक और आपदा प्रबंधन गुरु आज भी उस प्रयास को बड़े ही सम्मान के साथ याद करते हैं। संकट को समझने और उससे बचने के लिए उस समय पर सटीक उपाय करने की अंतर्दृष्टि दिखाई गई थी जिस कारण बिरही ताल टूटने के बाद जनहानि बहुत कम हुई थी। लेकिन हम इन 50 बरसों में भी बिरही के आपदा प्रबंधन माॅडल से सीख लेकर आपदा से बचाव को लेकर आज तक कोई धरातलीय योजना को अमलीजामा नहीं पहना पाये। हमें गौणा ताल के आपदा प्रबंधन से सीख लेनी चाहिए ताकि केदारनाथ आपदा जैसी पुनरावृत्ति प्रदेश में दुबारा न हो सके।

दुर्मी ताल के पुनर्निर्माण से बदलेगी चमोली में पर्यटन की तस्वीर, रोजगार के अवसर होंगे सृजित, हजारों लोगों को मिलेगा रोजगार…

वास्तव में बिरही ताल का टूटना पूरी बिरही घाटी के दर्जनों गांवों के लिए किसी अभिशाप से कम नहीं था। अगर आज ये ताल अस्तित्व में होता तो ये पूरी दुनिया के सैलानियों के लिए आकर्षण का केंद्र होता। यदि इस ताल का पुनर्निर्माण किया जाता है तो इससे न केवल पर्यटन को बढावा मिलेगा अपितु रोजगार के नये अवसर भी सृजित होंगें। साथ ही साथ स्थानीय उत्पादों को एक बाजार भी मिलेगा। दुर्मी ताल बनने के बाद पूरी निजमुला घाटी में 12 महीने पर्यटकों का जमावड़ा लगा रहेगा।जिससे निजमुला घाटी के समस्त गांव ही नहीं पूरे चमोली जनपद के नगर जिनमें चमोली, गोपेश्वर, नंद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग, गौचर, पीपलकोटी, मायापुर, बिरही, जोशीमठ को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से फायदा मिलेगा। जैसे नैनीताल और शिमला में पर्यटको का हुजूम इकट्ठा रहता है ठीक उसी तरह दुर्मी ताल पुनर्निर्माण के बाद यहाँ भी पर्यटकों का जमघट लगेगा। यही नहीं यहां नौकायन और राफ्टिंग, वाटर स्पोर्ट्स, मत्स्य पालन, लघु जलविद्युत् परियोजना, बतख पालन, फूल उत्पादन के जरिए स्वरोजगार के नयें अवसरों का भी सृजन होगा। दुर्मी ताल बनने पर पर्यटकों की आमद होंने से स्थानीय लोगों को, होटल मालिको, वाहन स्वामी, होमस्टे संचालकों, हस्तशिल्पियों को भी रोजगार मिल सकेगा। यही नहीं इससे 12 महीने पर्यटन को पंख लगेंगे। वहीं सप्तकुंड, तड़ाग ताल, लार्ड कर्ज़न रोड-कुंआरी पास ट्रैक, बंडीधूरा न्यू टूरिज्म डेस्टिनेशन, बालपाटा बुग्याल, नरेला बुग्याल, पीपलकोटी-किरूली- पंछूला- गौणा- गौणाडांडा- रामणी ट्रैक को भी बढावा मिलेगा

वास्तव में देखा जाए तो चमोली में पर्यटन की असीमित संभावनाएं हैं। यदि एक सुनियोजित तरीके से दुर्मी ताल का पुनर्निर्माण करके इसे पर्यटक स्थल के रूप में विकसित किया जाय और यहाँ पर्यटन की गतिविधियों को संचालित किया जाता है तो ये उत्तराखंड के पर्यटन के लिए मील का पत्थर साबित होगा। यही नहीं इससे हजारों लोगों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार मिलेगा। जो इस सदूरवर्ती इलाके से रोजगार के लिए हो रहे पलायन को रोकने में भी मददगार साबित होगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले समय में डल झील (कश्मीर), नैनी झील (नैनीताल) के बाद दुर्मी ताल (निजमुला घाटी) विश्व के पर्यटन मानचित्र पर अपनी पहचान बना पानें में सफल होगा।