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चिपको 50 वें साल में प्रवेश , चिपको नेता और रैणी पहचान को मोहताज

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26 मार्च 1974 को रैणी गांव की महिलाएं अपने जंगल को बचाने के लिए पेड़ों से चिपक गई थी

आभार: डा बृजेश सती

प्रसिद्ध चिपको आंदोलन 50 वें वर्ष में प्रवेश कर गया है । पांच दशक पहले 26 मार्च 1974 को आज ही के दिन रैणी गांव की एक साधारण महिला गौरादेवी के नेतृत्व में उनकी 27 सहयोगियों ने हरे भरे पेड़ों के आगे खड़े होकर चिपको आंदोलन की शुरुआत की। यह आंदोलन इसलिए भी खास है कि सामाजिक कार्यकर्ताओं के सहयोग से ग्रामीण महिलाओं ने इस आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भले ही चिपको आंदोलन अंतरराष्ट्रीय पहचान बना चुका है। विडंबना यह है कि चिपको से जुड़े लोग और उसकी कर्मभूमि पहचान की मोहताज है ।

गौरतलब है कि चमोली जनपद के ब्लॉक जोशीमठ का सीमांत गांव है रैणी। यहां से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर भारत तिब्बत सीमा प्रारंभ होती है । तपोवन और मलारी के बीच में रैणी गांव स्थित है ।

आज से 50 वर्ष पहले इस गांव की दो दर्जन महिलाएं स्वर्गीय गौरा देवी के साथ मिलकर पेड़ों को काटने से बचाने के लिए पेड़ों से लिपट गई और यहीं से चिपको आंदोलन की शुरुआत हुई ।

दरअसल रैणी में 1974 की घटना अचानक नहीं थी । यह स्थानीय ग्रामीओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं के संघर्ष की परिणति थी। स्व कॉमरेड गोविंद सिंह ,चंडी प्रसाद भट्ट , हयात सिंह, स्व वासवानंद नौटियाल, फतेसिंह रावत और उनके अन्य सहयोगी लंबे समय तक आंदोलनरत रहे।

रैणी के जंगलों का ठेका जब भला ठेकेदार को मिला और उसके कारिन्दों की इस क्षेत्र में बढती सक्रियता बढने लगी। तब लोग इसके विरोध में लामबंद हुए। उन्हें अपने जल जंगल और जमीन की चिंता सताने लगी थी। विरोध की तीव्रता धीरे-धीरे बढ़ती गई। विरोध इस स्तर पर पहुंचा कि 27 ग्रामीण महिलाओं को अपने जंगलों को बचाने के लिए पेड़ के आगे खडे होना पडा। बस यहीं से शुरू हुआ चिपको आंदोलन। इसके बाद इसी क्षेत्र में छीनों छपटो आंदोलन भी लंबे समय तक चला।

खास बात यह है कि चिपको आंदोलन आज से पांच दशक पहले देश के सीमांत गांव रैणी में किया गया । जहां उस दौर में शिक्षा और आधुनिक संचार के साधन उपलब्ध नहीं थे । कम शिक्षित होने के बावजूद यहां की ग्रामीण महिलाओं ने अपनी दृढ इच्छाशक्ति के चलते पर्यावरण सरक्षण का जो संकल्प लिया। वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाने में सफल रहा। भले ही गौरा देवी और उनकी सहयोगियों को वह सम्मान नहीं मिल पाया हो। लेकिन चिपको आंदोलन पर्यावरण संरक्षण का संदेश देने में कामयाब जरूर रहा।

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