Home उत्तराखंड उत्तराखंड की आपदाएं , प्राकृतिक ओर मानवजनित

उत्तराखंड की आपदाएं , प्राकृतिक ओर मानवजनित

24
0

गढ़वाल के लोक जीवन में एक बहुत पुरानी कहावत हे,नदी का वास ,कुल का वास।इसी तरह उच्च हिमालय में नंगे पांव से यात्रा,भीड़- भाड़ से दूर ऊंची आवाज में शोर न करना,हमे प्रकृति के अनुरूप आचरण करने के निर्देश देते थे।

लेकिन आज भोगवादी पर्यटन के चलते सरकार चार धामों को वर्ष भर खुला रख कर ,अधिकाधिक धन कमाने की लालसा से एक ओर लोक मान्यताओं से खिलवाड़ कर रही है,तो दूसरी ओर हिमालय के पर्यावरण प्रकृति से छेड़छाड़ कर आपदाओं को निमंत्रित कर रही है।

उत्तराखंड का आपदाओं से गहरा संबंध रहा है।2013 की केदारनाथ जल आपदा के बाद सरकार ने निर्णय लिया था कि इन स्थानों पर अर्ली वार्निंग सिस्टम और डफ़लर रडार लगा कर प्राकृतिक आपदाओं के न्यूनीकरण में मदद ली जाएगी। सरकार ने भी स्वीकार किया था कि केदारनाथ में 10 हजार से अधिक लोग आपदा के शिकार हुए थे।आज दिन तक भी वहा नर कंकालों का मिलना आपदा के उन ज़ख्मों की याद दिला देता हे।इस घटना के 12 साल बीत जाने के बाद सरकार का अर्ली वार्निंग सिस्टम और आपदा न्यूनीकरण की नीति ओर योजना जमीन पर उतर नहीं सकी।दूसरी ओर हमारे सांसद अनिल जी ने जनता की मांग पर मोहंड में मोबाइल सिंगनल न मिलने की मांग को संसद में उठकर अपनी संवेदनशीलता को जग ज़ाहिर किया।

हाल की धराली आपदा अनियोजित विकास की मानव जनित आपदा है। ब्रिटिश शासन में भी कस्बों और नगरों में निर्माणकार्य के लिए स्पष्ट गाइड लाइन थी कि नदी नालों के निकट 200 मीटर के रेडियस में कोई निर्माण कार्य नहीं होगा।नियम अब भी हे पर कथित विकास ओर भ्रष्टाचार के चलते नियम कानून फ़ाइलों में बंद पड़े है।

यहां एक बात गौर करने की यह भी हे कि चार धाम यात्रापथ भूकंप की दृष्टि से जोन फाइव के साथ अति संवेदनशील श्रेणी में है,इसके बाद भी सरकार इन चारधामों को नगर बना कर ककरीट का जंगल बनाने में क्यों आमादा है।क्या जनता ने इसकी मांग की थी।
वर्तमान सरकार भी पर्यटन के नाम पर भीड़ एकत्रित कर उसका मैनेजमेंट किए बिना जिस तरीके से निर्माण कार्य करवा रही हे,उसके गंभीर परिणाम नजर आने लगे हे। हिमालय की आपदाएं जो पहले शताब्दी फिर अर्ध शताब्दी ओर अब प्रति दो तीन वर्षों के अंतराल में आने लगी हैं,उसकी आहट सरकार क्या सुन नहीं पा रही है।
सरकार का आपदा मंत्रालय अभी दो वर्ष पूर्व की जोशीमठ आपदा,के घावों को नहीं भर पाई थी कि उत्तरकाशी धराली की आपदा ने एक बार हमें चेताया हे कि प्रकृति से अनियोजित छेड़छाड़ के गंभीर परिणाम भुगतने होगे।

उत्तराखंड के महान भू वैज्ञानिक के एस बल्दिया ने फरवरी 1974 के एक जर्नल साइंस टुडे में में लिखा था,की पिथौरागढ़ चमोली ओर केदारनाथ क्षेत्र के नीचे गुजरती थ्रस्ट लाइन उत्तरकाशी के गंगोत्री से गुजरते हुए हिमाचल के सिरमौर तक जाती हे।इसे गंभीर अति संवेदनशील मानते हुए उन्होंने इस क्षेत्र में भारी भवनों के निर्माण को विनाशकारी बताया था। हमारे सरकारी ढांचे में भूकंप और भू स्खलन की दृष्टि से संवेदनशील इलाकों में भवन निर्माण शैली का न होना ओर निर्माण कार्यों की मॉनिटरिंग टूल्स का रेगुलेशन न होना हमेशा आपदाओं को आमंत्रित करता रहेगा।
जोशीमठ ओर गोपेश्वर शहर 16 वी शताब्दी में आए एवलांच के मलवे के ऊपर बसे हुए हैं।ठीक इसी तरह धराली का कस्बा गांव नहीं, 1836 के बर्फ़ के एवलांच पर बसा है। भू वैज्ञानिक डी सी .नैनवाल का मानना हे कि पुराने एवलांचो के ऊपर बसे इन नगरों की आबादी हमेशा खतरे की जद में हैं।रिवर फ्रंट जैसी योजनाओं से नदियों की स्वाभाविक चौड़ाई को कम करके पर्यटन के नाम पर छेड़छाड़ से पहाड़ के भूगोल को बदलने के गंभीर परिणाम सामने आने लगे हैं।

सरकार हर आपदा के बाद ज़ख्मों पर मरहम लगाने के लिए जांच कमेटियों का गठन जनता के रोष को कम तो करती हे,पर वैज्ञानिकों की संस्तुतियों को लागू करने की इच्छा शक्ति नहीं दिखाती हैं। कुछ ऐसे भी वैज्ञानिक होते हैं,जिन्हें सत्ता ओर उच्च पदों का लोभ दिखा कर वास्तविक रिपोर्टों पर लीपा पोती कर दी जाती है। इस शोषण के विरुद्ध अब जनता को भी संगठित हो कर अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए विनाशकारी और विस्थापनकारी पर्यटन को रोकने के लिए आगे आना होगा।

Dr. Yogesh Dhasmana