अयोध्या: सोमवार को भगवान श्रीराम के अयोध्या में देवभूमि उत्तराखंड की प्रख्यात जागर गायिका और पद्मश्री सम्मान से सम्मानित बोलांदी नंदा बसंती बिष्ट नें श्री राम जन्मभूमि मंदिर में भगवान श्री रामलला सरकार के समक्ष भगवान श्रीराम, माता सीता, भगवान कृष्ण और मां नंदा के जीवन प्रसंगो की जागरों और गीतों से शानदार प्रस्तुति से अयोध्या वाशियों को मंत्रमुग्ध कर दिया।
सीता-राम, आंछरी, कृष्ण और मां नंदा के प्रसंगो को जागरो और गीतों से दी प्रस्तुति— बसंती बिष्ट
अयोध्या में पद्मश्री संगीतकारों और गीतकारों के भव्य आयोजन में सम्मिलित होने पहुंची पद्मश्री सम्मान से सम्मानित बोलांदी नंदा बसंती बिष्ट नें बताया की वे भगवान राम के अयोध्था में पहुंचकर बेहद खुश हैं और यहां आकर रामलला के दर्शन और अपनी प्रस्तुति देने का जो सौभाग्य उन्हें मिला है वो भगवान के आशीर्वाद से ही संभव हो पाया है। वे रामलला के दर्शन पाकर धन्य हो गयी हैं। उन्होने बताया की अयोध्या में भगवान राम के सानिध्य में उत्तराखंड की पारंपरिक लोक विधा जागर गायन शैली और गीतों के जरिए सतयुग में सृष्टि की रचना, सती गौरा, द्वापर में भगवान राम चन्द्र जन्म, सीता जन्म, धनुष वंदन, सीता तरूण अवस्था, सीता की विदाई, जनक व सुनैना द्वारा कन्यादान, 100 गाय दान, अयोध्या में डोला स्वागत, दूध की दही परोठी, जय राम, भगवान कृष्ण, गोपियां व आंछरी नृत्य की प्रस्तुति दी गयी। उन्होने बताया की उनके द्वारा प्रस्तुत कार्यक्रम को सबने सराहा।
माँ की गोद में सीखा लोकसंगीत का पहला आखर!
सीमांत जनपद चमोली के देवाल ब्लॉक के ल्वाणी गांव में 14 जनवरी 1952 को बिरमा देवी के घर छोटी बेटी के रूप में बंसती बिष्ट का जन्म हुआ। बंसती बिष्ट ने पहाड़ के लोकसंगीत का पहला आखर अपनी मां बिरमा देवी से ही सीखा। बंसती बिष्ट केवल 5 वीं कक्षा तक ही पढ़ी है। उस समय की परिस्थितियां ही कुछ ऐसी थीं कि वह चाह कर भी आगे नहीं पढ़ पाईं। 13 बरस की छोटी आयु में इनका विवाह ल्वाणी गांव के ही रंजीत सिंह बिष्ट के साथ हुआ। रंजीत सिंह फौज में तैनात थे जिन्होंने सेवानिवृति के बाद हर कदम पर बसंती का साथ दिया। तेरह बरस से लेकर बत्तीस बरस तक बसंती ने अपने परिवार को संभाला। इसी दौरान उन्होंने अपनी मां से लोकसंगीत को करीब से जाना। गांव में लगने वाले नंदा देवी लोकजात से लेकर राजजात सहित अन्य कार्यक्रमों में जाकर जागरों को आत्मसात किया। लेकिन पहाड़ में महिलाओं को मंचों पर जागर गाने की परंपरा नहीं रही है। इसलिए बसंती बिष्ट को चाह कर भी उचित मंच नहीं मिल पाया था। 32 वर्ष की आयु में वो अपने पति रणजीत सिंह के साथ पंजाब चली गईं। लोक संस्कूति के प्रति बसंती की ललक को देखते हुए पति ने उन्हें संगीत की विधिवत तालीम लेने के लिए प्रोत्साहित किया। शुरू में तो बसंती ने मना किया। लेकिन जोर देने पर उन्होंने हामी भर दी। इसके बाद उन्होंने जालंधर में शास्त्रीय संगीत की तालीम ली। उन्होंने लोकसंगीत की बारीकियां भी सीखीं। चंडीगढ़ से लोकसंगीत की दीक्षा लेने के बाद बसंती वापस देहरादून लौटीं तो उस समय उत्तराखण्ड राज्य के लिए आंदोलन चरम पर था। बसंती ने भी राज्य आंदोलन में बढ़चढ़कर हिस्सा लिया। आंदोलन के दौरान उन्होंने गीत गाए, जिससे उन्हें एक नया हौसला मिला। मुजफ्फरनगर, खटीमा, मसूरी गोलीकांड की द्घटना नें उन्हें बेहद आहत किया। जिसके बाद अपने लिखे गीतों से उन्होंने आंदोलन को एक नई गति प्रदान की। उन्होंने कई मंचों पर आंदोलन के दौरान गीत भी गाए। इन गीतों को लोगों नें बेहद सराहा। जिसके बाद बसंती बिष्ट ने पीछे मुड़कर नहीं देखा।
नंदा के जागरों और ठेट पहाड़ी मखमली आवाज से मिली पहचान!
विश्व की सबसे बड़ी पैदल धार्मिक यात्रा हिमालयी महाकुंभ ऐतिहासिक नंदा राजजात यात्रा का हमारे पास कोई स्पष्ट लिखित दस्तावेज/इतिहास नहीं है। नंदा राजजात का जो भी इतिहास है उसकी जानकारी हमें यहां के लोकजागरों और गीतों से मिलती है। बसंती की मां को नंदा के प्रति बचपन से ही अगाढ आस्था रही है। उन्होंने अपनी मां से नंदा के जागरों को सीखकर बचपन में ही इन्हें आत्मसात कर लिया। ये जागर आज भी बसंती को कंठस्थ हैं। हर साल आयोजित होने वाली नंदा देवी की वार्षिक लोकजात से लेकर बारह बरस में आयोजित होने वाली नंदा देवी राजजात यात्रा में नंदा के धाम कुरूड़ से डोली कैलाश के लिए विदा करते समय बसंती के नंदा के जागरों को सुनकर हर किसी की आंखें छलछला उठती हैं। जिस कारण इन्हें बोलांदी नंदा कहा जाता है। इन्होंने नंदा के जागरों को बरसों से न केवल सहेजने का कार्य किया है अपितु इन जागरों को एक पुस्तक और सीडी ‘नंदा का जागर सुफल हवै जायां तुम्हारी जात्रा…’ के माध्यम से आने वाली पीढ़ी के लिए धरोहर के रूप में संजोया है। बसंती ने लोक में मौजूद नंदा के जागरों को हूबहू आत्मसात किया और उन्हें आवाज दी। प्रख्यात लोकगायक जीत सिंह नेगी की प्रेरणा ने उनको आज नया मुकाम दिलाया है। आज देश ही नहीं विदेशों में लोकजागर गायिका के हजारों प्रशंसक हैं। गढवाली और कुमाऊंनी दोनों भाषाओं में परंपरागत बसंती को उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन के बाद आकाशवाणी से गाने का मौका मिला। इस सुनहरे मौके का उन्होंने भरपूर सदुपयोग किया और आकाशवाणी में जागर गायन को प्राथमिकता दी। जब आकाशवाणी से अपनी ठेट पहाड़ी अंदाज में अपनी जादुई आवाज से जागर गाए तो हर कोई मंत्रमुग्ध होकर रह गया। धीरे धीरे बसंती बिष्ट की सुरीली आवाज को पहचान मिलने लग गई थी। इसके अलावा 40 बरस की उम्र में देहरादून में गढ़वाल सभा द्वारा आयोजित कार्यक्रम में जब उन्होंने पहली बार मंच पर जागरों की एकल प्रस्तुति दी तो ठेट पहाड़ी शैली की जादुई आवाज ने लोगों को मंत्रमुग्ध कर दिया। पूरे मैदान में तालियों की गड़गड़ाहट नें बसंती के सपनों की उड़ान को वो पंख दिए कि आज वह पद्मश्री सम्मान हासिल कर चुकी हैं। बसंती बिष्ट ने जागर गाकर न सिर्फ सदियों पुरानी परंपरा को तोड़ा, बल्कि महिलाओं के लिए प्रेरणास्रोत भी बनीं। उत्तराखंड में सदियों से जागर गाने की परपंरा रही है, लेकिन इसे पुरुष ही गाया करते थे। मंच हो या पूजा-अनुष्ठान, महिलाओं को जागर गाने की अनुमति नहीं थी। लेकिन, बसंती बिष्ट ने जागर गाकर न सिर्फ इस परंपरा को तोड़ा, बल्कि महिलाओं के लिए प्रेरणास्रोत भी बनीं।
अब तक मिल चुके है दर्जनो सम्मान!
बसंती बिष्ट को जागर गायन और लोकगीतों के लिए विभिन्न मंचो पर सम्मानित किया जा चुका है और दर्जनो पुरस्कार भी मिल चुके हैं।
जनवरी 2017 में पद्मश्री सम्मान
महिला सशक्तीकरण एवं बाल विकास मंत्रालय की ओर से ‘फर्स्ट लेडी’
बाबा अमीर गिरी सम्मान-2011
वर्ष 2017 में मध्यप्रदेश सरकार की ओर से राष्ट्रीय देवी अहिल्या सम्मान
2017 – उत्तराखंड रत्न
जनवरी 2018 में उत्तराखंड महिला आयोग की ओर से सशक्तीकरण सम्मान
2019 में श्रीदेव सुमन विश्वविद्यालय द्वारा लोकसंगीत में मानद उपाधि
दैनिक जागरण के ‘स्वरोत्सव’ में लोक संवाहक सम्मान
यंग उत्तराखंड सिने अवार्ड के तहत लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड
देवभूमि लोक सम्मान-2022
2023 उत्तराखंड गौरव सम्मान
बकौल बसंती बिष्ट जी मुझे मेरी मां बिरमा देवी से लोकसंगीत विरासत में मिला। नंदा के जागरों को मां से सुनकर इन्हें आत्मसात किया और लोगों तक पहुंचाया। पति और परिवार के सहयोग से ही आज यहां तक पहुंच पाई हूं। हमारे संगीत में वैदिक ज्ञान है, ऋषि-मुनि से लेकर राजा-महाराजाओं की परंपरा भी समाहित है। महिलाओं को लोक गीतों के संरक्षण एवं संवर्धन को आगे आना चाहिए। हमारी युवा पीढ़ी अपनी लोकसंस्कृति और मूल्यों से विमुख होती जा रही है। आने वाली पीढ़ी को चाहिए कि वे अपनी लोकसंस्कूति को संजोने में अमूल्य योगदान दें।
वास्तव मे देखा जाय तो बंसती बिष्ट जी के लिए यह मुकाम हासिल करना आसान नहीं था। ठेट पहाड में ल्वाणी गांव के नंदा चौक से पद्मश्री तक का उनका सफर बेहद संघर्षमय रहा। बसंती बिष्ट जी उन लोगों के लिए प्रेरणास्रोत है जो जीवन मे थोड़ी सी कठिनाइयों पर हार मान लेते हैं।