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देवलांग: ढोलों की थापों, रांसों- हारुल लोकनृत्य के संग रोशनी का अनूठा लोकोत्सव,

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देवलांग! — ढोलों की थापों, रांसों- हारुल लोकनृत्य के संग रोशनी का अनूठा लोकोत्सव, 23 नवंबर को होगा आयोजन..
संजय चौहान!
इन दिनों उत्तराखंड के कोने- कोने में मेले, कौथिग और लोकोत्सवों की धूम मची हुई है। ऐसी ही अनमोल सांस्कृतिक विरासत है रंवाई- यमुना घाटी का लोकोत्सव देवलांग। इस बार देवलांग 23 नवंबर को मनाया जा रहा है।

ये है देवलांग लोकोत्सव!

देवलांग का आयोजन सीमांत जनपद उत्तरकाशी के नौगांव विकासखंड में दो जगह, बनाल पट्टी के गैर गांव तथा ठकराल पट्टी के कोटी गांव में होता है। इन दोनों देवलांग में बनाल पट्टी के गैर गाँव की देवलांग काफी प्रसिद्ध है। देवलांग उत्सव मंगशीर्ष महीने की अमावस्या को मनाया जाता है, जिसे लोग साक्षात् ज्योतिर्लिंग के रूप में मानतें हैं। जिसमे देवदार के एक पेड़ को जड़ सहित उखाड़कर एक निश्चित स्थान पर लाया जाता है जहां इसे जमीन में स्थापित किया जाता है। यह दृश्य सबसे ज्यादा आकर्षण का केंद्र होता है क्योंकि इस पेड़ को बिना हाथ लगाये केवल डंडों के सहारे जमीन में स्थापित किया जाता है। इस उत्सव में शामिल होने वाले ग्रामीणों के दो थोक (दल) शांटी थोक और पांशायी थोक है, जो कौरवों और पांडवों के प्रतीक हैं। दोनों थोकों के समस्त ग्रामीण अपने- अपने गांव से पारम्पारिक परिधानों में सझधजकर ढोल, दमाऊं, रणसिंगो के साथ नाचते- गाते हुये हाथों में मशाल लेकर अपने- अपने रास्तों से जो कि पूर्व से ही निर्धारित हैं से होते हुये मन्दिर पहुंचते हैं। जहां पर देवदार का पेड़ स्थापित किया जाता है। जिसके बाद पेड़ की चोटी को छूने की कोशिस की जाती है। चोटी को छूते ही हाथ में लिए मशाल से देवलांग में आग लगा दी जाती है जिसके बाद शुरू होता है देवलांग उत्सव जिसमे मशाल रूपी भेल्लो पर आग लगाकर चारों और जोर जोर से घुमाया जाता है और ढोलों की थापों पर रातभर लोग रांसों, हारुल, तांदी लोकनृत्य प्रस्तुत करतें है तथा आपस में गुड, तिल, चुडा का प्रसाद वितरण करतें हैं। इस उत्सव को देखने दूर दूर से लोग यहाँ पहुँचते हैं। पूरी यमुना घाटी के सैकड़ों गांवो के लोग देवलांग के गवाह बनतें हैं। माना जाता है कि मानना है कि देवलांग का पर्व महासू संस्कृति के एक जागड़ा का ही स्वरूप है जिसे हिमांचल के सिरमौर से लेकर जौनसार तथा रंवाई के बनाल-गैर गांव तक मनाया जाता है। जिसे महासू संस्कृति के प्रतीक के रूप में देखा जाना चाहिए।

रवाई की सांस्कृतिक विरासत के सशक्त हस्ताक्षर और साहित्यकार दिनेश रावत कहते हैं की लोकोत्सव होने के बाद भी देवलांग बिल्कुल अलग है अन्य मेले-थौलों या लोकायोजनों से। बहुत सी विशिष्टताएं हैं। वैदिक व लौकिक संस्कृति का मंजुल समन्वय है। लोक गीत-संगीत व नृत्य के जितने रंग-रौनक है आस्था के भाव उससे कई गहरे। दिनेश रावत कहते हैं कि दीपोत्सव के दीपकों की झिलमिल कम होती उससे पहले ही रंवाई के लोकपर्व देवलांग को लेकर लोगों का उल्लास व उत्साह निरंतर परवान चढ़ रहा है। हो भी क्यों नहीं आख़िर यही तो वह अवसर है जब अपने आराध्य इष्ट के प्रति अगाध श्रद्धा-विश्वास तथा लोकोत्सवों से अथाह आत्मीय अनुराग रहने सीमांत उत्तरकाशी के पश्चिमोत्तर रवांई क्षेत्र के श्रद्धालु देवलांग के बहाने बनाल पट्टी के गैर गांव में जुटेंगे और धर्म-आस्था और विश्वास की नाव पर सवार होकर लोक गीत-संगीत व नृत्य की त्रिवेणी में गोते लगाते हुए अपनी सांस्कृतिक सम्पन्नता, सामाजिक सद्भाव तथा लोक परंपराओं का भरपूर लुत्फ़ उठाएंगे।

वहीं सामाजिक सरोकारो से जुडे युवा और वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप रावत कहते हैं कि देवलांग रंवाई घाटी की अनमोल सांस्कृतिक धरोहर है। यह यमुना घाटी का लोकपर्व है। इस बार इसका आयोजन 23 नवंबर को हो रहा है।