तीलू रौतेली(तिलोत्तमा)
कौन थी तीलू रौतेली :तीलू रौतेली ( तिलोत्तमा ), गढ़वाल, उत्तराखण्ड की एक ऐसी वीरांगना जो केवल 15 वर्ष की उम्र में रणभूमि में कूद पड़ी थी और सात साल तक जिसने अपने दुश्मन राजाओं को कड़ी चुनौती दी थी। 15 से 20 वर्ष की आयु में सात युद्ध लड़ने वाली तीलू रौतेली संभवत विश्व की एक मात्र वीरांगना है। तीलू रौतेली उर्फ तिलोत्तमा भारत की भारत की रानी लक्ष्मीबाई, चांद बीबी, झलकारी बाई, बेगम हजरत महल के समान ही देश विदेश में ख्याति प्राप्त हैं।
उत्तराखण्ड सरकार ने तीलू रौतेली के नाम पर एक योजना शुरू की है, जिसका नाम तीलू रौतेली पेंशन योजना[1] है। यह योजना उन महिलाओं को समर्पित है, जो कृषि कार्य करते हुए विकलांग हो चुकी हैं। इस योजना का लाभ उत्तराखंड राज्य की बहुत सी महिलायें उठा रहीं हैं।…..
तीलू रौतेली सम्मान : 2006 से इस सम्मान का शुभारंभ हुवा समाज मे अपने अदम्य साहस और समर्पण और जंन सरोकारों के लिए लड़ने ,समाज हित मे काम करने वाली महिलाओं को यह समान दिया जाता है।
उत्तराखंड में सत्रहवीं शताब्दी में तीलू रौतेली नामक वीरांगना ने 15 वर्ष की आयु में दुश्मनों के साथ 7 वर्ष तक युद्ध किया, तीलू रौतेली के साहस का परिचय यही है कि इस छोटी से उम्र में तीलू ने युद्धकर 13 गढ़ों पर विजय पाई थी और वह अंत में अपने प्राणों की आहुति देकर वीरगति को प्राप्त हो गई थी ।
तीलू रौतेली के पिता का नाम गोरला रावत भूपसिंह था, जो गढ़वाल नरेश राज्य के प्रमुख सभासदों में से थे। गोरला रावत गढ़वाल के परमार राजपुतों की एक शाखा है जो संवत्ती 817( सन् 760) मे गुजर देश (वर्तमान गुजरात राज्य) से गढ़वाल के पौडी जिले के चांदकोट क्षेत्र के गुरार गांव(वर्तमान गुराड गांव) मे गढ़वाल के परमार शासकों की शरण मे आयी।इसी गांव के नाम से ये कालांतर मे यह परमारो की शाखा गुरला अथवा गोरला नाम से प्रवंचित हुई। रावत केवल इनकी उपाधी है। इन परमारो को गढ राज्य की पूर्वी व दक्षिण सीमा के किलो की जिम्मेदारी दी गयी।चांदकोट गढ ,गुजडूगढी आदि की किले इनके अधीनस्थ थे। तीलू के दोनो भाईयो को कत्युरी सेना के सरदार को हराकर सिर काटकर गढ़ नरेश को प्रस्तुत करने पर 42-42 गांव की जागीर दी गयी । युद्ध मे इन दोनो भाईयों(भगतु एवं पत्वा ) के 42-42 घाव आये थे। पत्वा(फतह सिंह ) ने अपना मुख्यालय गांव परसोली/पडसोली(पट्टी गुजडू ) मे स्थापित किया जहां वर्तमान मे उसके वंशज रह रहे है। भगतु(भगत सिंह )के वंशज गांव सिसई(पट्टी खाटली )मे वर्तमान मे रह रहे है।
गढवाल के लेखक श्री हरिराम धस्माना ने पत्रिका “उत्तर भारत” मे 12 जनवरी 1938 को प्रकाशित लेख “वीरमूर्ति भगतु-पत्वा” मे लिखा की परमारो की यह शाखा गुजरात से काली कुमाऊं-डोटी क्षेत्र मे आयी। वहां चंद राजाओं के बढते प्रभाव के कारण अधिकार विहीन होकर यह शाखा गढ़वाल के परमार शासकों के अधीन आयी। तीलू रौतेली का जन्म कब हुआ, इसको लेकर कोई तिथि स्पष्ट नहीं है। लेकिन गढ़वाल में 8 अगस्त को उनकी जयंती मनायी जाती है और यह माना जाता है, कि उनका जन्म 8 अगस्त 1661 को हुआ था।
तीलू रौतेली ने अपने बचपन का अधिकांश समय बीरोंखाल के कांडा मल्ला, गांव में बिताया। आज भी हर वर्ष उनके नाम का कौथिग ओर बॉलीबाल मैच का आयोजन कांडा मल्ला में किया जाता है। इस प्रतियोगीता में सभ क्षेत्रवासी भाग लेते है।
तीलू रौतेली गोरला रावत भूप सिंह(गढ़वाल के इतिहास मे ये गंगू गोरला रावत नाम से जाने जाते है। ) की पुत्री थी, 15 वर्ष की आयु में तीलू रौतेली की सगाई इडा गाँव (पट्टी मोंदाडस्यु) के सिपाही नेगी भुप्पा सिंह के पुत्र भवानी नेगी के साथ हुई। गढ़वाल मे सिपाही नेगी जाति सुर्यवंशी राजपूत है जो हिमाचल प्रदेश से आकर गढ़वाल मे बसे है।
इन्ही दिनों गढ़वाल में कन्त्यूरों के लगातार हमले हो रहे थे, और इन हमलों में कन्त्यूरों के खिलाफ लड़ते-लड़ते तीलू के पिता ने युद्ध भूमि प्राण न्यौछावर कर दिये। इनके प्रतिशोध में तीलू के मंगेतर और दोनों भाइयों (भगतू और पत्वा ) ने भी युद्धभूमि में अप्रतिम बलिदान दिया।
कौथीग जाने की जिद
कुछ ही दिनों में कांडा गाँव में कौथीग (मेला) लगा और बालिका तीलू इन सभी घटनाओं से अंजान कौथीग में जाने की जिद करने लगी तो माँ ने रोते हुये ताना मारा….
तीलू तू कैसी है, रे! तुझे अपने भाइयों की याद नहीं आती। तेरे पिता का प्रतिशोध कौन लेगा रे! जा रणभूमि में जा और अपने भाइयों की मौत का बदला ले। ले सकती है क्या? फिर खेलना कौथीग!
तीलू के बाल्य मन को ये बातें चुभ गई और उसने कौथीग जाने का ध्यान तो छोड़ ही दिया बल्कि प्रतिशोध की धुन पकड़ ली। उसने अपनी सहेलियों के साथ मिलकर एक सेना बनानी आरंभ कर दी और पुरानी बिखरी हुई सेना को एकत्र करना भी शुरू कर दिया। प्रतिशोध की ज्वाला ने तीलू को घायल सिंहनी बना दिया था, शास्त्रों से लैस सैनिकों तथा “बिंदुली” नाम की घोड़ी और अपनी दो प्रमुख सहेलियों बेल्लु और देवली को साथ लेकर युद्धभूमि के लिए प्रस्थान किया।
युद्ध भूमि में पराक्रम
सबसे पहले तीलू रौतेली ने खैरागढ़ (वर्तमान कालागढ़ के समीप) को कन्त्यूरों से मुक्त करवाया, उसके बाद उमटागढ़ी पर धावा बोला, फिर वह अपने सैन्य दल के साथ “सल्ड महादेव” पंहुची और उसे भी शत्रु सेना के चंगुल से मुक्त कराया। चौखुटिया तक गढ़ राज्य की सीमा निर्धारित कर देने के बाद तीलू अपने सैन्य दल के साथ देघाट वापस आयी. कालिंका खाल में तीलू का शत्रु से घमासान संग्राम हुआ, सराईखेत में कन्त्यूरों को परास्त करके तीलू ने अपने पिता के बलिदान का बदला लिया; इसी जगह पर तीलू की घोड़ी “बिंदुली” भी शत्रु दल के वारों से घायल होकर तीलू का साथ छोड़ गई।
अंतिम बलिदान
शत्रु को पराजय का स्वाद चखाने के बाद जब तीलू रौतेली लौट रही थी तो जल श्रोत को देखकर उसका मन कुछ विश्राम करने को हुआ, कांडा गाँव के ठीक नीचे पूर्वी नयार नदी में पानी पीते समय उसने अपनी तलवार नीचे रख दी और जैसे ही वह पानी पीने के लिए झुकी, उधर ही छुपे हुये पराजय से अपमानित रामू रजवार नामक एक कन्त्यूरी सैनिक ने तीलू की तलवार उठाकर उस पर हमला कर दिया।
निहत्थी तीलू पर पीछे से छुपकर किया गया यह वार प्राणान्तक साबित हुआ।कहा जाता है कि तीलू ने मरने से पहले अपनी कटार के वार से उस शत्रु सैनिक को यमलोक भेज दिया।
विरासत
उनकी याद में आज भी कांडा ग्राम व बीरोंखाल क्षेत्र के निवासी हर वर्ष कौथीग (मेला) आयोजित करते हैं और ढ़ोल-दमाऊ तथा निशाण के साथ तीलू रौतेली की प्रतिमा का पूजन किया जाता है।
तीलू रौतेली की स्मृति में गढ़वाल मंडल के कई गाँव में थड्या गीत गाये जाते हैं।
ओ कांडा का कौथिग उर्यो
ओ तिलू कौथिग बोला
धकीं धे धे तिलू रौतेली धकीं धे धे
द्वी वीर मेरा रणशूर ह्वेन
भगतु पत्ता को बदला लेक कौथीग खेलला
धकीं धे धे तिलू रौतेली धकीं धे धे
VEERBALA TEELU RAUTELI – DRAMA BOOK – Dr Rajeshwar Uniyal
वीरबाला तीलू रौतेली -नाट्य पुस्तक, डॉ. राजेश्वर उनियाल,
नेशनल बुक ट्रस्ट-नई दिल्ली,
VEERBALA TEELU RAUTELI – DRAMA BOOK – Dr Rajeshwar Uniyal