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नोदी कौथिग: अनुसूया मेला

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अनुसुया मेला!– मां अनुसूया के जप—तप से भर जाती हैं सूनी गोदें, 17 और 18 दिसंबर को दत्तात्रेय जयंती पर लगेगा भव्य मेला..
ग्राउंड जीरो से संजय चौहान!
सीमांत जनपद चमोली के जिला मुख्यालय गोपेश्वर से 10 किमी की दूरी पर मंडल से 5 किमी पर स्थित है पौराणिक अनुसुया मंदिर। इस साल (दत्तात्रेय जयंती) पर 17 और 18 दिसम्बर को आयोजित होगा प्रसिद्ध अणसी कौथिग/ नोदी कौथिग / अनुसुया मेला। पुत्रदायिनी के रूप में विख्यात माता अनुसूया देवी ने न जाने अब तक कितनी सूनी गोदें भर कर रख दी हैं। यही वजह है कि हर साल अनुसुया मेला में हजारों श्रद्धालु अनुसुया माता के दरबार में मत्था टेकने आते हैं।

ये है धार्मिक मान्यता!

धार्मिक मान्यता के अनुसार मां अनुसूया देवी मंदिर के गर्भ गृह व अहाते में रात्रिभर जागकर ध्यान, जप – तप करने से भक्तों के भाग्य जाग उठते हैं और उनकी कोख हरी हो जाती हैं। इस रात्रि जागरण के बीच नींद के किसी अलसाये झोंके में कोई स्वप्न दिख गया तो मान लिया जाता है कि करूणा—मूर्ति देवी ने उनकी गुहार सुन ली है। अखंड विश्वास और अटूट श्रद्धा के आगे सारे तर्क धरे के धरे रह जाते हैं। सदियों से रात्रि जागरण की यह परंपरा बदस्तूर जारी है। ऐसा यह अवसर निसंतान दंपतियों को दत्तात्रेय जयंती की चतुर्थदशी व पंचमी को मिलता है। दिसंबर माह में ही ये दिन पड़ते हैं।

 

 

 

पुराणों में माता अनुसूया को सर्वश्रेष्ठ पुत्रदायिनी देवी बताया गया है। इसके पीछे भी एक कथा सर्वविदित है। बताया जाता है कि महर्षि अत्रि लंबी तपस्या पर बैठे थे। कठोर तप देकर सभी देव घबरा गए। ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश उनके पास गए। बोले – हम बेहद पसन्न हैं। कहिए आपको क्या चाहिए। महर्षि बोले – तपस्या मेरा स्वभाव है। मुझे कुछ नहीं चाहिए। हां, सती अनुसूया देवी से पूछ लो। तीनों देव मां अनुसूया के पास पहुंचे तो माता ने भी कुछ भी चीज मांगने से मना कर दिया। तीनों देवों को यह सब बहुत बुरा लगा। तीनों देवों ने सोचा स्त्री की सबसे बड़ी इच्छा संतान प्राप्ति की होती है। क्यो न इस बारे में पूछ लिया जाए। उन्होने देवी से कहा— संतान की इच्छा तो होगी ही। देवी ने कहा – आप तीनों भी तो मेरे बच्चे हैं। देवों ने सोचा यह उनका कैसा उपहास है। इसे अहं हो गया है। तीनों देवों ने परीक्षा लेने की ठानी। उन्होने देवी से कहा – तो तुम बच्चों के सामने नग्न रूप में आ जाओ। देवी के तप के बलबूते पर तत्काल तीनों देव शिशु बन गए। देवी ने उन्हे गोद में बैठा लिया। तीनों देवों को सत्य की अनुभूति हुई । उन्होने माता से बरबस क्षमा मांग ली। तदनंतर में ब्रह्मा चंद्रमां के रूप में, शिव दुर्वासा के रूप में तथा विष्णु ने दत्तात्रेय के रूप में जन्म लिया। तब से माता अनुसूया ‘पुत्रदा’ के रूप मेें विख्यात हो गई। इसी के चलते यहां प्रतिवर्ष अनुसूया देवी का दत्तात्रेय जन्म जयंती मेला आयोजित किया जाता है।

संतान की चाह में माँ अनुसुया के ध्यान जप में रात्रि जागरण में बैठते हैं ‘बरोही’…..

 

पुत्र कामना के लिए होने वाला रात्रि जागरण तो इसी खास अवसर पर मेले के रूप में जुटता है। हाड़ कंपा देने वाली ठंड में इस मौके पर दूर- दूर से आने वाले निसंतान दंपतियों के अलावा सैकड़ों नर- नारी इस मेले में जुटते हैं। जंगल व मैदान में यह मेला जुटता है और मंदिर में रात्रि जागरण पर्व मनाया जाता है। संतान की इच्छा वाली महिलाएं सायं से ही ध्यान जप में बैठ जाती है। इन्हें यहां की भाषा में ‘बरोही’ कहा जाता है। बरोही उनिंदे ही ध्यान मुद्रा में लंबी रात काट देते हैं। सुफल मिलते ही लोग अपने घरों को लौट आते हैं। यह मेला इस बार बुधवार व गुरूवार को आयोजित हो रहा है।

यहाँ स्थित है मंदिर!

बर्फीली चोटियों, सन्नाटेदार घने – गहरे जंगलों के बीच बसा है माता अनुसूया देवी का मंदिर। इसकी प्राकृतिक छटा देखते ही बनती है। प्रकृति प्रेमियों के लिए तो यह अद्भुत तपोभूमि है। जिला मुख्यालय गोपेश्वर से 13 किमी दूर अनुसूया गेट से 5 किमी का पैदल सफर तय कर ही माता के मंदिर में पहुंचा जाता है।

प्राचीन काल में यहां पर देवी अनुसूया का छोटा सा मंदिर था। सत्रहवीं सदी में कत्यूरी राजाओं ने इस स्थान पर अनुसूया देवी के भव्य मंदिर का निर्माण किया था, मगर अठारहवीं सदी में विनाशकारी भूकंप से यह मंदिर ध्वस्त हो गया था। बाद में संत ऐत्वारगिरी महाराज ने निंगोल गधेरे व मैनागाड़ गधेरे के बीच के क्षेत्र के ग्रामीणों की मदद से इस मंदिर का निर्माण कराया। मंदिर स्थानीय पत्थरों से बनाया गया है।

ऐतिहासिक मंडल शिलालेख।

अनुसुया मंदिर और रूद्रनाथ मंदिर मार्ग के मध्य एक ऐतिहासिक शिलालेख अव्यवस्थित है जिसे मंडल शिलालेख के रूप में जाना जाता है। मौखरी “राजा सरवर्मन” का यह शिलालेख लगभग 576-580 ई. के मध्य का है।

नवरात्र में अनसूया देवी के मंदिर में नौ दिन तक मंडल घाटी के ग्रामीण मां का पूजन करते है। इस मंदिर की विशेषता यह है कि अन्य मंदिरों की तरह यहां पर बलि प्रथा का प्रावधान नहीं है। यहां श्रद्धालुओं को विशेष प्रसाद दिया जाता है। यह स्थानीय स्तर पर उगाए गए गेहूं के आटे का होता है।